नई दिल्ली, 21 दिसंबर: सुप्रीम कोर्ट के हालिया आदेश के बाद अरावली पहाड़ियों को लेकर देशभर में नई बहस छिड़ गई है। शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में स्पष्ट किया है कि 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों को स्वतः ‘जंगल’ नहीं माना जाएगा। इस टिप्पणी के सामने आते ही पर्यावरण कार्यकर्ताओं, सामाजिक संगठनों और स्थानीय लोगों में गहरी चिंता देखने को मिल रही है। कई शहरों में विरोध प्रदर्शन हुए, वहीं सोशल मीडिया पर #SaveAravalli ट्रेंड करने लगा।

क्या है सुप्रीम कोर्ट का आदेश?

सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि किसी क्षेत्र को ‘वन भूमि’ घोषित करने के लिए केवल उसकी भौगोलिक संरचना या ऊंचाई ही एकमात्र आधार नहीं हो सकती। अदालत ने माना कि 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों को अपने आप जंगल मान लेना उचित नहीं है, बल्कि इसके लिए सरकारी रिकॉर्ड, अधिसूचना और कानूनी मानदंडों को देखना जरूरी है।

क्यों बढ़ी चिंता?

पर्यावरणविदों का कहना है कि यह आदेश अरावली जैसे संवेदनशील पारिस्थितिकी क्षेत्र के लिए खतरा बन सकता है। उनका तर्क है कि अरावली सिर्फ पहाड़ियों का समूह नहीं, बल्कि उत्तर भारत के पर्यावरण संतुलन की रीढ़ है। यह क्षेत्र

* भूजल स्तर बनाए रखने

* रेगिस्तान के विस्तार को रोकने

* प्रदूषण और धूल भरी आंधियों से बचाव

  में अहम भूमिका निभाता है।

विशेषज्ञों को आशंका है कि इस फैसले की आड़ में खनन, रियल एस्टेट और औद्योगिक गतिविधियों को बढ़ावा मिल सकता है, जिससे अरावली की प्राकृतिक संरचना को नुकसान पहुंचेगा।

सड़कों से सोशल मीडिया तक विरोध

फैसले के बाद दिल्ली-एनसीआर, हरियाणा और राजस्थान में कई जगह लोगों ने प्रदर्शन किए। पर्यावरण संगठनों ने सरकार से अरावली को विशेष संरक्षण देने की मांग की। वहीं ट्विटर, इंस्टाग्राम और फेसबुक पर #SaveAravalli के जरिए लोग अपनी नाराजगी जाहिर कर रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट के आदेश की पुनः समीक्षा की मांग कर रहे हैं।

सरकार और आगे की राह

सरकारी पक्ष का कहना है कि अदालत के आदेश का गलत अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए और अरावली के संरक्षण से जुड़े कानून पहले की तरह लागू रहेंगे। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि अब केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर अरावली संरक्षण के लिए स्पष्ट और मजबूत नीति बनानी होगी, ताकि किसी भी तरह के पर्यावरणीय नुकसान को रोका जा सके।

अरावली को लेकर यह बहस आने वाले दिनों में और तेज होने की संभावना है, क्योंकि यह मुद्दा सिर्फ पहाड़ियों का नहीं, बल्कि पर्यावरण और भविष्य की पीढ़ियों से जुड़ा हुआ है।

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