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लोक आस्था का महापर्व छठ पूजा को लेकर अखिलेश्वर पाठक ने दी जानकारी

सारण, 07 नवंबर: पंडित अखिलेश्वर पाठक ने लोक और आस्था की महान पर्व छठ को लेकर महत्वपूर्ण जानकारी दी उन्होंने बताया कि सूर्यषष्ठी व्रत चार वेद, अठ्ठारह पुराण, एक सौ आठ उपनिषद, छः शास्त्र, रामायण एवं महाभारत जैसे सनातनी ग्रंथों में महाभविष्ययोत्तर पुराण की कथानुसार कलियुग में राजा परीक्षित के पुत्र जन्मेजय जी ने वैशम्पायन जी से पूछा कि आप कोई ऐसा व्रत बताएं जिसका प्रभाव असंभव कार्य को भी संभव बना देता हो .

वैशम्पायन जी बता रहे हैं कि द्वापर में जब द्युत कीड़ा में पराजित एवं राजच्यूत होकर पांडव लोग बारह वर्षो का वनवास काल व्यतीत कर रहे थे तो उसी समय अठ्ठासी हजार ब्राह्मण एवं साधु संतों का झूण्ड जंगल में पहुंचा और द्रौपदी से भोजन की याचना की.द्रौपदी जी के पास अपने लिए बैठने तक के लिए व्यवस्था उपलब्ध नहीं थी ऐसे में भोजन की बात सुनकर बहुत दुःखी एवं लज्जित हुईं.दुःखी मन से हीं उन्होंने अपने पुरोहित धौम्य जी से पूछा कि प्रतिदिन सोना- चांदी, अन्न,धन, वस्त्र आदि दान करने वाले मेरे भाग्य को क्या हो गया?और यह दिन कैसे फिरेगा?

धौम्य जी बताते हैं कि सतयुग में श्रयाति नाम के एक राजा हुए थे जिनकी एक हजार पत्नियां थी पर मात्र एक पत्नी से एक कन्या रत्न की प्राप्ति हुई थी .अधिक सुन्दर होने के कारण उस कन्या का नाम सुकन्या रख दिया गया था. एकदिन की बात है जब राजा श्रयाति शिकार खेलने के लिए जंगल में चले गए थे तो उसी समय सुकन्या ने वन विहार के क्रम में अपनी सखियों के साथ अनजान वश महर्षि च्यवन की आँखें फोर दी थीं जिनका शरीर घोर तपस्या के कारण दियका लगने से मिट्टी के ढेर में परिवर्तित हो गया था.आँखों से बहते हुए रक्त के कारण महर्षि च्यवन ने श्राप दे दिया जिसके कारण जंगल के प्रवास काल में राजा श्रयाति सहित सभी लोगों का पखाना-पेशाब बंद हो गया.श्राप के निराकरण के लिए राजा श्रयाति ने कोई अन्य उपाय को न देखते हुए अपने राजपुरोहित की मन्त्रना से अपनी पुत्री का विवाह महर्षि च्यवन से कर दिया जिनके नाम पर एक दवा का नाम च्यवनप्राश पड़ा है. क्योंकि महर्षि च्यवन आँवला के पेड़ के नीचे हीं रहते थे,उसी की लकड़ी से भोजन बनाते थे और आँवला का हीं सेवन करते थे . सुकन्या दियका लगने से मिट्टी के ढेर में परिणत च्यवन ऋषि की वरसों – वरस तक सेवा की.एकदिन की बात है कि जल लेने के क्रम में सुकन्या पुष्करिणी नामक तालाब पर पहुंची जहाँ उन्होंने नाग कन्याओं को आदित्य भगवान का पूजन करते हुए देखा.इनके नाम पर हीं हमलोग रविवार को आदित्यवार या एतवार कहते हैं.सुकन्या ने नागकन्याओं से पूछा तो नागकन्याओं ने बताया कि हमलोग भगवान सूर्य का पूजन कर रहे हैं जो कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को स्नानादि करके भोजन बनाने और खाने के साथ नहाय- खाय से प्रारंभ होता है.पंचमी तिथि को निराहार रहकर संध्या काल में क्षीर या खीर बनाकर प्रसाद रूप में ग्रहण किया जाता हैं और उसे अन्य लोगों में वितरण किया जाता हैं जिसे खीरना या खरना कहा जाता है. फिर जब षष्ठी तिथि आती है तो उपलब्ध ऋतुफल एवं पकवान्न आदि से डूबते हुए सूर्य को जल राशि में प्रवेश कर अर्घ दिया जाता है जो भारतीय संस्कृति में उत्थान – पतन की स्थिति में भी स्थिर बुद्धि को मान्यता प्रदान करता है.जब सप्तमी तिथि आती है तो उगते हुए सूर्य को प्रातः काल में किसी नदी या तालाब में अर्ध देने के साथ पूर्ण किया जाता है. चूँकि अर्घ किसी न किसी जलराशि में हीं दिया जाता है जो वास्पीकरण के माध्यम से सूर्य भगवान तक पहुंच जाय जो इस पर्व की वैज्ञानिकता को प्रमाणित करता है.जिसे पूरना या पारणा कहा जाता है क्योंकि इस दिन व्रत पूरा हो जाता है .इस प्रकार सुकन्या ने इस व्रत को किया तो च्यवन ऋषि का शरीर भी निर्मल हो गया और वे दम्पति सभी सुखों से परिपूर्ण होकर लक्ष्मी नारायण के रूप में जीवन यापन करने लगे. ठीक उसी प्रकार द्रौपदी जी ने इस सूर्य षष्ठी व्रत को किया और अठ्ठारह दिन की लड़ाई हीं सही उन्हें सूर्य नारायण की कृपा से पूनः राज्यलक्ष्मी की प्राप्ति हुई. इस प्रकार इस व्रत में तीन युगों की कथाओं को सम्मिलित होने से और अधिक बल मिला है. यह व्रत बिहार, उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र एवं विदेशों में भी जहाँ भारतवंशी निवास करते हैं वहां धूम – धाम से मनाया जाता है.

इस व्रत को करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है जैसे पूत्रहीन व्यक्ति को पूत्र रत्न की प्राप्ति होती है केस -मुकदमा में जीत हाशिल होता है या शरीर के किसी भाग में कोई विकृति आ गयी हो तो वह निर्मल एवं रोगरहित होकर सुन्दर सुकान्त दिखता है. चुकि यह व्रत षष्ठी तिथि को मनाया जाता है इसलिए इसका अपभ्रश छठी होकर है छठ व्रत के नाम से भी प्रसिद्ध हो गया है.सूर्य की आकृति गोल है अतः लोग पकवान्न आदि उसी आकृति का बनाते हैं. उपासना के लिए मिट्टी का सूर्यसप्ता इसी अधिमान्यता के कारण गोल और सात संख्याओं में बनाया जाता हैं क्योंकि सूर्य की शक्ति के पिछे सविता या उषा का हाथ होता है जिनके रथ में सात घोड़े होते हैं. प्रेम से बोलो भास्कर भगवान की जय।

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