25 दिसंबर | स्पेशल रिपोर्ट : अरावली पर्वत श्रृंखला, जिसे उत्तर भारत की सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण पहाड़ियों में गिना जाता है, आज अपने अस्तित्व की सबसे बड़ी लड़ाई लड़ रही है। कभी हरियाली, जलस्रोतों और जैव विविधता से भरपूर रही अरावली आज अवैध खनन की वजह से उजड़ती जा रही है। इस विनाश का सबसे गंभीर असर भूजल स्तर पर पड़ा है, जो अब पाताल की गहराइयों में समा चुका है।
15 मीटर से पाताल तक का सफर
स्थानीय बुजुर्गों और सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 1990 से पहले अरावली क्षेत्र में 15 से 20 मीटर की गहराई पर ही पानी मिल जाया करता था। कुएं, तालाब और बावड़ियां प्राकृतिक रूप से रिचार्ज होती रहती थीं। बारिश का पानी पहाड़ियों की चट्टानों में समाकर धीरे-धीरे भूजल को भरता था।
लेकिन अवैध खनन ने पहाड़ों की इस प्राकृतिक जल-संरचना को तोड़ दिया। आज स्थिति यह है कि कई इलाकों में 200 से 400 फीट नीचे तक भी पानी नहीं मिल रहा, और हैंडपंप व ट्यूबवेल सूख चुके हैं।
पहाड़ कटे, जलचक्र टूटा
अरावली की चट्टानें और वनस्पति वर्षा जल को रोककर जमीन में उतारने का काम करती थीं। खनन के चलते पहाड़ों की परतें हट गईं, जिससे बारिश का पानी बहकर नालों में चला जाता है।
इससे न सिर्फ भूजल रिचार्ज रुक गया, बल्कि मिट्टी का कटाव और बाढ़ जैसी स्थितियां भी बढ़ने लगी हैं। एक तरफ जल संकट गहराता जा रहा है, दूसरी ओर पर्यावरणीय असंतुलन खतरनाक स्तर पर पहुंच चुका है।
दिल्ली-एनसीआर तक असर
अरावली का विनाश सिर्फ पहाड़ी इलाकों तक सीमित नहीं है। इसका सीधा असर दिल्ली-एनसीआर, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक देखा जा रहा है। विशेषज्ञों के मुताबिक, अरावली कमजोर होने से गर्म हवाएं बिना रोक-टोक आगे बढ़ती हैं, जिससे तापमान और प्रदूषण दोनों में बढ़ोतरी होती है।
साथ ही, भूजल खत्म होने से शहरों की निर्भरता दूर-दराज के जल स्रोतों पर बढ़ती जा रही है।
वन्यजीव और हरियाली संकट में
अरावली के जंगल कई वन्यजीवों का घर थे। खनन और जल संकट के चलते ये जीव या तो पलायन कर चुके हैं या विलुप्ति के कगार पर हैं। पेड़-पौधों के सूखने से हरित आवरण लगातार घट रहा है, जिससे कार्बन अवशोषण भी कम हो रहा है।
अब भी वक्त है, पर…
पर्यावरणविदों का कहना है कि यदि अवैध खनन पर पूरी तरह रोक, पहाड़ियों का वैज्ञानिक पुनर्जीवन, बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण और वर्षा जल संरक्षण योजनाएं लागू की जाएं, तो अरावली को बचाया जा सकता है।
लेकिन यदि मौजूदा हालात बने रहे, तो आने वाले वर्षों में अरावली सिर्फ इतिहास और रिपोर्टों में सिमट कर रह जाएगी।
अरावली का संकट केवल पर्यावरण का मुद्दा नहीं, बल्कि पानी, जलवायु और मानव जीवन के भविष्य का सवाल है। अब निर्णय हमें करना है—विकास के नाम पर विनाश या संरक्षण के साथ प्रगति?